माझा कट्टा बदलतोय त्याविषयी लिहाव म्हणतो थोड़............

हल्ली खुप छान छान विचार, गोष्टी, संवाद, लेख वाचायला मिळतात आणि ते पण लगेच, आपण ते लगेच शेयर पण करतो. लवकरात लवकर वाचतो, शेयर करतो आणि विसरू...

शुक्रवार, २६ ऑगस्ट, २०१६

हिंदी मैं पहली पोस्ट इंटरनेट की दुनिया से.......

🏻 डीआईजी नवनीत सिकेरा ने एक *बेहद मार्मिक स्टोरी* पोस्ट की।
एक *जज अपनी पत्नी को क्यों दे रहे हैं तलाक???*।
*""रोंगटे खड़े"" कर देने वाली स्टोरी* को जरूर पढ़े और लोगों को शेयर करें। 
 
⚡कल रात एक ऐसा वाकया हुआ जिसने मेरी *ज़िन्दगी के कई पहलुओं को छू लिया*.
करीब 7 बजे होंगे,
शाम को मोबाइल बजा ।
उठाया तो *उधर से रोने की आवाज*...
मैंने शांत कराया और पूछा कि *भाभीजी आखिर हुआ क्या*?
उधर से आवाज़ आई..
*आप कहाँ हैं??? और कितनी देर में आ सकते हैं*?
मैंने कहा:- *"आप परेशानी बताइये"*।
और "भाई साहब कहाँ हैं...?माताजी किधर हैं..?" "आखिर हुआ क्या...?"
लेकिन
*उधर से केवल एक रट कि "आप आ जाइए"*, मैंने आश्वाशन दिया कि *कम से कम एक घंटा पहुंचने में लगेगा*. जैसे तैसे पूरी घबड़ाहट में पहुँचा;
देखा तो भाई साहब [हमारे मित्र जो जज हैं] सामने बैठे हुए हैं;
*भाभीजी रोना चीखना कर रही हैं* 12 साल का बेटा भी परेशान है; 9 साल की बेटी भी कुछ नहीं कह पा रही है।
मैंने भाई साहब से पूछा कि *""आखिर क्या बात है""*???
*""भाई साहब कोई जवाब नहीं दे रहे थे ""*.
फिर भाभी जी ने कहा ये देखिये *तलाक के पेपर, ये कोर्ट से तैयार करा के लाये हैं*, मुझे तलाक देना चाहते हैं,
मैंने पूछा - *ये कैसे हो सकता है???. इतनी अच्छी फैमिली है. 2 बच्चे हैं. सब कुछ सेटल्ड है. ""प्रथम दृष्टि में मुझे लगा ये मजाक है""*.
लेकिन मैंने बच्चों से पूछा  *दादी किधर है*,
बच्चों ने बताया पापा ने उन्हें 3 दिन पहले *नोएडा के वृद्धाश्रम में शिफ्ट* कर दिया है.
मैंने घर के नौकर से कहा।
मुझे और भाई साहब को चाय पिलाओ;
कुछ देर में चाय आई. भाई साहब को *बहुत कोशिशें कीं चाय पिलाने की*.
लेकिन उन्होंने नहीं पी और कुछ ही देर में वो एक *"मासूम बच्चे की तरह फूटफूट कर रोने लगे "*बोले मैंने 3 दिन से कुछ भी नहीं खाया है. मैं अपनी 61 साल की माँ को कुछ लोगों के हवाले करके आया हूँ.
*पिछले साल से मेरे घर में उनके लिए इतनी मुसीबतें हो गईं कि पत्नी (भाभीजी) ने कसम खा ली*. कि *""मैं माँ जी का ध्यान नहीं रख सकती""*ना तो ये उनसे बात करती थी
और ना ही मेरे बच्चे बात करते थे. *रोज़ मेरे कोर्ट से आने के बाद माँ खूब रोती थी*. नौकर तक भी *अपनी मनमानी से व्यवहार करते थे*
माँ ने 10 दिन पहले बोल दिया.. बेटा तू मुझे *ओल्ड ऐज होम* में शिफ्ट कर दे.
मैंने बहुत *कोशिशें कीं पूरी फैमिली को समझाने की*, लेकिन *किसी ने माँ से सीधे मुँह बात नहीं की*.
*जब मैं 2 साल का था तब पापा की मृत्यु हो गई थी दूसरों के घरों में काम करके *""मुझे पढ़ाया. मुझे इस काबिल बनाया कि आज मैं जज हूँ""*. लोग बताते हैं माँ कभी दूसरों के घरों में काम करते वक़्त भी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थीं.
*उस माँ को मैं ओल्ड ऐज होम में शिफ्ट करके आया हूँ*. पिछले 3 दिनों से
मैं *अपनी माँ के एक-एक दुःख को याद करके तड़प रहा हूँ,*जो उसने केवल मेरे लिए उठाये।
मुझे आज भी याद है जब..
*""मैं 10th की परीक्षा में अपीयर होने वाला था. माँ मेरे साथ रात रात भर बैठी रहती""*.
एक बार *माँ को बहुत फीवर हुआ मैं तभी स्कूल से आया था*. उसका *शरीर गर्म था, तप रहा था*. मैंने कहा *माँ तुझे फीवर है हँसते हुए बोली अभी खाना बना रही थी इसलिए गर्म है*.
लोगों से *उधार माँग कर मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय से एलएलबी तक पढ़ाया*. मुझे *ट्यूशन तक नहीं पढ़ाने देती थीं*कि कहीं मेरा टाइम ख़राब ना हो जाए.  
       *कहते-कहते रोने लगे..और बोले--""जब ऐसी माँ के हम नहीं हो सके तो हम अपने बीबी और बच्चों के क्या होंगे""*.
हम जिनके *शरीर के टुकड़े हैं*,आज हम उनको *ऐसे लोगों के हवाले कर आये, ""जो उनकी आदत, उनकी बीमारी, उनके बारे में कुछ भी नहीं जानते""*,
जब मैं ऐसी माँ के लिए कुछ नहीं कर सकता तो *"मैं किसी और के लिए भला क्या कर सकता हूँ".*
आज़ादी अगर इतनी प्यारी है और *माँ इतनी बोझ लग रही हैं, तो मैं पूरी आज़ादी देना चाहता हूँ*
.
जब *मैं बिना बाप के पल गया तो ये बच्चे भी पल जाएंगे*. इसीलिए मैं तलाक देना चाहता हूँ।
*सारी प्रॉपर्टी इन लोगों के हवाले* करके उस *ओल्ड ऐज होम* में रहूँगा. कम से कम मैं माँ के साथ रह तो सकता हूँ।
और अगर *इतना सब कुछ कर के ""माँ आश्रम में रहने के लिए मजबूर है"", तो एक दिन मुझे भी आखिर जाना ही पड़ेगा*.
माँ के साथ रहते-रहते आदत भी हो जायेगी. *माँ की तरह तकलीफ* तो नहीं होगी.
*जितना बोलते उससे भी ज्यादा रो रहे थे*.
बातें करते करते रात के 12:30 हो गए।
मैंने भाभीजी के चेहरे को देखा.
उनके *भाव भी प्रायश्चित्त और ग्लानि* से भरे हुए थे; मैंने ड्राईवर से कहा अभी हम लोग नोएडा जाएंगे।
भाभीजी और बच्चे हम सारे लोग नोएडा पहुँचे.
*बहुत ज़्यादा रिक्वेस्ट करने पर गेट खुला*. भाई साहब ने उस *गेटकीपर के पैर पकड़ लिए*, बोले मेरी माँ है, मैं उसको लेने आया हूँ,
चौकीदार ने कहा क्या करते हो साहब,
भाई साहब ने कहा *मैं जज हूँ,*
उस चौकीदार ने कहा:-
*""जहाँ सारे सबूत सामने हैं तब तो आप अपनी माँ के साथ न्याय नहीं कर पाये,
औरों के साथ क्या न्याय करते होंगे साहब"*।
इतना कहकर हम लोगों को वहीं रोककर वह अन्दर चला गया.
अन्दर से एक महिला आई जो *वार्डन* थी.
उसने *बड़े कातर शब्दों में कहा*:-
"2 बजे रात को आप लोग ले जाके कहीं मार दें, तो
*मैं अपने ईश्वर को क्या जबाब दूंगी..*?"
मैंने सिस्टर से कहा  *आप विश्वास करिये*. ये लोग *बहुत बड़े पश्चाताप में जी रहे हैं*.
अंत में किसी तरह उनके कमरे में ले गईं. *कमरे में जो दृश्य था, उसको कहने की स्थिति में मैं नहीं हूँ.*
केवल एक फ़ोटो जिसमें *पूरी फैमिली* है और वो भी माँ जी के बगल में, जैसे किसी बच्चे को सुला रखा है.
मुझे देखीं तो उनको लगा कि बात न खुल जाए
लेकिन जब मैंने कहा *हम लोग आप को लेने आये हैं, तो पूरी फैमिली एक दूसरे को पकड़ कर रोने लगी*
आसपास के कमरों में और भी बुजुर्ग थे सब लोग जाग कर बाहर तक ही आ गए.
*उनकी भी आँखें नम थीं*
कुछ समय के बाद चलने की तैयारी हुई. पूरे आश्रम के लोग बाहर तक आये. किसी तरह हम लोग आश्रम के लोगों को छोड़ पाये.
सब लोग इस आशा से देख रहे थे कि *शायद उनको भी कोई लेने आए, रास्ते भर बच्चे और भाभी जी तो शान्त रहे*.......
लेकिन भाई साहब और माताजी एक दूसरे की *भावनाओं को अपने पुराने रिश्ते पर बिठा रहे थे*.घर आते-आते करीब 3:45 हो गया.
👩 💐 *भाभीजी भी अपनी ख़ुशी की चाबी कहाँ है; ये समझ गई थी* 💐
मैं भी चल दिया. लेकिन *रास्ते भर वो सारी बातें और दृश्य घूमते रहे*.
👵 💐*""माँ केवल माँ है""* 💐👵
*उसको मरने से पहले ना मारें.*
*माँ हमारी ताकत है उसे बेसहारा न होने दें , अगर वह कमज़ोर हो गई तो हमारी संस्कृति की ""रीढ़ कमज़ोर"" हो जाएगी* , बिना रीढ़ का समाज कैसा होता है किसी से छुपा नहीं
अगर आपकी परिचित परिवार में ऐसी कोई समस्या हो तो उसको ये जरूर पढ़ायें, *बात को प्रभावी ढंग से समझायें , कुछ भी करें लेकिन हमारी जननी को बेसहारा बेघर न होने दें*, अगर *माँ की आँख से आँसू गिर गए तो *"ये क़र्ज़ कई जन्मों तक रहेगा"*, यकीन मानना सब होगा तुम्हारे पास पर *""सुकून नहीं होगा""* , सुकून सिर्फ *माँ के आँचल* में होता है उस *आँचल को बिखरने मत देना*।
👏👏💐💐👏👏
इस *मार्मिक दास्तान को खुद भी पढ़िये और अपने बच्चों को भी पढ़ाइये ताकि पश्चाताप न करना पड़े*।
*धन्यवाद*!!! 
   #कॉपी
🙏🏻💐🌷



Thoughts....

If you are not satisfied with what you are getting, 
Check what you are giving,
"Give Better to Get Best" 
Have a beautiful life......

Flipkart ki dukan....:)

मंगळवार, १७ मे, २०१६

माझा कट्टा बदलतोय त्याविषयी लिहाव म्हणतो थोड़............

हल्ली खुप छान छान विचार, गोष्टी, संवाद, लेख वाचायला मिळतात आणि ते पण लगेच, आपण ते लगेच शेयर पण करतो. लवकरात लवकर वाचतो, शेयर करतो आणि विसरून सुद्धा जातो आणि नंतर कधी तरी जेंव्हा आपण जुन्या आठवणी चाळत असतो तेंव्हा ते अचानक आपणच शेयर केलेल, आपल्यालाच नविन विचार वाटतो. जेंव्हा हा माझा कट्टा लिहायला सुरु केला तेंव्हा असच चांगले चांगले विचार शेयर केले, जे भेटत गेले या मायाजाळात. तेंव्हा ते वय ही नव्हत काही लिहिण्याच आणि तेवढे काही अनुभवही. आज स्वतः काहीतरी लिहिण्याची प्रगल्भता आली आहे, असं वाटत म्हणून जमेल तेंव्हा आणि जमेल तस लिहाव म्हणतो.........दर दिवशी काही ना काही विचार मनात येऊन जातात, बरेच अनुभव येतात........तेच माझ्या कट्ट्यावर लिहावे म्हणतो.........

शुक्रवार, २९ एप्रिल, २०१६

majha katta ata FB war pan

आता माझा कट्टा फेसबुक वर सुद्धा लिंक आहे www.facebook.com/majhakatta10......मग मंडळी करा join

chala parat jama karuya dost mandali la aaplya kattyawar........

चला तर मंडळी परत भेटुयात माझ्या कट्ट्या वर.........खूप दिवसांपासून शांतता होती ईथे.

रविवार, १९ ऑक्टोबर, २०१४

article On the Occasion of the World Mental Health Day | Loksatta

शारीरिक आजारांचं मूळ मानसिक तणावांमध्ये
असतंच आणि तणावाच्या मागे, 'मला वाटलं म्हणून..',  आणि '.. त्यात माझं कुठे
चुकलं?' ही गृहीतकं काम करत असतात. आज जगभरातील २५ टक्के माणसं निराशेने
ग्रासलेली आहेत. आपल्या देशात तर अपघातामुळे होणाऱ्या मृत्यूंपेक्षा
आत्महत्या करणाऱ्या तरुणांची संख्या दुपटीपेक्षा जास्त आहे. निराश
मनस्थितीतून  प्रत्येकाला बाहेर पडायचंय, पण त्यासाठी स्वत:वर काही काम
करायला हवंय याकडे कोणी लक्ष देत नाही. निराशा टाळायची असेल तर 'कोण चूक?
कोण बरोबर?' या बालिश वादविवादाऐवजी 'या परिस्थितीत काय योग्य आहे?' हा
प्रश्न दिशा दाखवू शकतो. 'परिस्थितीबद्दल तक्रार करीत राहण्यानं जगणं सोपं
जाईल की तिच्या समंजस स्वीकारामुळे ताण कमी होईल?' हा प्रश्न मनातला झगडा
थांबवतो..  प्रश्न नक्कीच सुटेल, मात्र तशी इच्छा आणि प्रयत्न मनापासून
करायला हवेत. नुकत्याच साजरा करण्यात आलेल्या जागतिक मन:स्वास्थ्य दिनाच्या
निमित्ताने..

मला वाटतं तो माझ्याशी खोटं वागतो. त्यामुळे तो काही विशेष सांगायला आला की, 'तो खरं सांगतोय ना?' ही शंका माझी पाठ सोडत नाही.''
''मला
वाटतं, तिचा माझ्यावर विश्वास नाही. तिच्या प्रश्नांना आणि धुसफुशीला
घाबरून मी काही गोष्टी सांगायचं टाळतो. यात माझं काय चुकतं?''
**
''आम्हाला वाटतं तो आतल्या गाठीचा आहे. मनातलं सांगत नाही. डोक्यात काय चक्रं  फिरत असतात देव जाणे.''
 ''मला
वाटतं, आईबाबांना माझी लाज वाटते. दोन वेळा नापास झालो. मला नाही वाटत मी
आयुष्यात काही करू शकेन. असं पराभूत जगून काय उपयोग?''
**
''मला
वाटतं, मी त्याला आता आवडत नाही. पूर्वी माझ्या ज्या गोष्टी त्याला
आवडायच्या त्यावरच आता चिडतो. 'तू तसंच का म्हटलंस?', 'असंच का नाही
म्हटलंस?' दोन्ही बाजूंनी भांडतो. माझं काय चुकतंय?''
 ''मला वाटतं, आता
बायकोनं कॉलेजातल्या सारखं बिनधास्त वागू नये. नवरा म्हणून माझा मान
ठेवावा. हे तिला कळतच नाही. मग चिडलो तर माझी काय चूक?''
**
''मला
वाटतं माझा मुलगा हेकट आहे. लग्न नकोच म्हणतो. एकटय़ानं आयुष्य काढणं किती
अवघड म्हणून मी पुन:पुन्हा विचारते, तर माझ्यावरच चिडतो. यात माझं काय
चुकलं?''
''मला वाटतं, माझ्या आईचा स्वभाव कुठल्याच मुलीला झेपणार नाही. माझं लग्न थोडय़ा दिवसांत मोडेलच. मग कशाला लग्नाच्या भानगडीत पडू?''
**
''मला वाटतं, बॉसला माझ्याबद्दल खुन्नस वाटते. कितीही चांगलं काम करा, हा मख्खच. मग माझ्याकडूनही पाटय़ा टाकल्या जातात. काय करणार?''
''हाताखालच्या लोकांचं फार कौतुक केलं तर ती डोक्यावर बसतात. त्यांना त्यांच्या जागेवरच ठेवलं पाहिजे.''
**
''मला वाटतं, 'सासू = सारख्या सूचना' हे माझ्याच सासूवरून सुचलं असावं. त्यांची सूचना आली की माझं डोकं चढतं.''
''मला वाटतं, तिला अनुभव नाही, तिला सोपं पडावं म्हणून सांगते तर हिच्या कपाळावर आठय़ा.''
पती-पत्नी,
पालक-मुलं, सासू-सुना, बॉस-सहकारी अशा वेगवेगळ्या नात्यांमधल्या
व्यक्तींच्या मनातली ही अव्यक्त स्वगतं किंवा व्यक्त संवाद. गोष्टी अगदी
नेहमीच्या, कुठल्याही घरात, कुठल्याही ऑफिसात घडणाऱ्या. एकाच घटनेकडे
पाहण्याचे दोघांचे दोन भिन्न दृष्टिकोन आणि 'माझाच दृष्टिकोनच खरा' याची
प्रत्येकाला पूर्ण खात्री. वरच्या प्रत्येक विसंवादामध्ये दोन वाक्प्रचार
कॉमन सापडतील, ते म्हणजे, 'मला वाटतं..' आणि 'यात माझं काय चुकलं?'
 
प्रत्येकाच्या मनात स्वत:बद्दल आणि दुसऱ्याबद्दलचं काही तरी 'मला
वाटतं/वाटलं' सतत फिरत असतं.  काहीजण ते 'वाटणं' व्यक्त करतात तर काही न
बोलता मनात घोळवत राहतात. प्रत्यक्ष 'त्या' व्यक्तीपाशी हे 'वाटणं' व्यक्त
होईलच असं नाही. त्या व्यक्तीच्या वागण्यामागे काही वेगळा विचार होता? हे
समजून घेण्याची तसदी घेतली जात नाही. कारण अनेकदा संभाव्य परिणामांची भीती
वाटते. उदा. 'मला वाटतं, तुमचा माझ्यावर डूख आहे. प्रत्यक्षात तसंच आहे का
हो?' असं बॉसला विचारणं शक्यच नसतं. तसंच 'माझा तुमच्यावर व्यक्तिश: राग
नाही, तुम्ही डोक्यावर बसाल या भीतीनं मी गप्प असतो.' असं बॉसही सांगू शकत
नाही. त्यामुळे मनातल्या समजुती मनात ठेवून प्रत्यक्षात वेगळाच संवाद होतो.

आत्महत्येच्या विचारापर्यंत पोहोचलेल्या व्यक्तीच्या मनातली, 'अमुक
जमलं नाही, आता आयुष्यभर आपण पराभूतच राहणार' ही खात्री एवढी पक्की असते
की, दुसऱ्या पर्यायापर्यंत त्याला पोहोचता येत नाही. 'लग्न टाळणाऱ्या
मुलाच्या मनातलं, 'आईच्या स्वभावामुळे माझं लग्न मोडणारच' हे 'वाटणं' एवढं
पक्कं असतं की भेटेलही कदाचित एखादी जमवून घेणारी' असं त्याला वाटतच नाही.
त्या निराशेत आईकडून लग्नाचा विषय निघाल्यावर 'तुला जमणार आहे का सुनेशी
जमवून घ्यायला?' असं एखादा तुसडेपणानं  विचारतो. मग एखादी आई चिडून 'तुझ्या
स्वभावातच कशा चुका आहेत..' यावर उतरते किंवा एखादी संवादच टाळते आणि
यातून निष्पन्न  काहीच होत नाही.
 अनेकदा अशा विसंवादाची सुरुवात तीव्र
नसते, पण  वारंवार घडल्यानंतर गोष्टी मनात घर करतात. त्यांची  'समस्या'
बनते. आपल्या इच्छा, अपेक्षा 'आपल्या' व्यक्तीकडून पूर्ण होत नाहीत, आपला
हेतू समजून घेतला जात नाही असं वाटून नात्यामध्ये ताण, दुरावा येतो.
पती-पत्नींबाबत अपेक्षाभंगामुळे मन दुखावणं तर हमखास आणि वर्षांनुर्वष
घडतं. कारण बहुतेकदा 'तू मला समजूनच घेत नाहीस, तुझंच चुकतंय, माझं बरोबर
आहे हे तू मान्य कर' हाच अट्टहास दोन्ही बाजूंनी असतो. ज्याचा पुढचा
अध्याहृत भाग असतो, '..आणि म्हणून मी सांगतो/ सांगते तसं (मुकाटय़ानं) वाग.'

 तसं दोघांच्याही भूमिकांमध्ये काही तरी तथ्य जरूर असतं, पण हळूहळू
आपलंच मत त्रिकालाबाधित सत्य वाटायला लागतं. माझ्या 'मला वाटतं'कडे मला
जराही दुर्लक्ष करता येत नाही हे जास्त खरं असतं. त्या दुखावलेल्या
इगोभोवतीच सगळं आयुष्य फिरतं. ताण आणि निराशा तिथे कायमच्या वस्तीला येतात.
ती एक अवघड जागा बनते.
 अशा विसंवादात आणखी एक गरज तीव्र असते.
आपल्या वाटण्याला 'हो, तुझंच बरोबर आहे' अशी मान्यता मिळविण्याची.
कुठल्याही स्वगताच्या किंवा पुरातन वादाच्या गाभ्यात डोकावून पाहिलं, तर
एकच टाहो ऐकू येतो, ''मला बरोबर म्हणा. माझं वाटणं, म्हणणं स्वीकारा.'' पण
त्यातून साध्य काहीच होत नाही. उलट दुरावा, मनस्ताप, ताण तर वाढतातच. 'कोण
चूक, कोण बरोबर?' एवढय़ाच गोष्टीत सगळे प्रश्न साकळून बसतात. निराशा, संताप
वाढत राहतात, पण बदल घडत नाही. कारण त्रासाच्या मुळाशी आपण पोहोचलेलोच
नसतो. 'त्याचा माझ्यावर विश्वास नाही', 'मी कधीच यशस्वी होऊ शकणार नाही',
'माझं लग्न मोडणारच', 'बायकोनं असंच वागलं पाहिजे, मी किती बिचारी,
माझ्यावर कुणीही येऊन अन्याय करतं,' असली ठाम गृहीतकं या सर्वाच्या मुळाशी
असतात. या समजुतींमध्ये तथ्य किती आहे ते पूर्वानुभव विचारात घेऊन तपासलं
जात नाही. उलट गृहीतकांच्या पाश्र्वसंगीताच्या तालावर मनाची वेगवेगळ्या
पद्धतीने स्वगतं चालू असतात.
 'मी नाही घाबरत कुणाला. त्यांना चांगलंच
दाखवतो.' हे स्वगत असणारी व्यक्ती पत्नी, आई, मित्रासारख्या सॉफ्ट
टाग्रेटला सडेतोडपणे, अपमानास्पद बोलते. बॉस किंवा वरिष्ठांसारख्या
लोकांसमोर गोड बोलायचं आणि मनात/ मागे, 'आमची मुस्कटदाबी होते, अन्याय
होतो' म्हणत राहायचं ही एक पद्धत. 
''मी का सांगू? त्याची जबाबदारी
त्याला कळायला नको?'', ''मी कसं बोलणार? माझ्याकडून उगीच उलटंसुलटं काहीतरी
बोललं जाईल.'', ''ते फटकन काही बोलले, तर मला सहन होणार नाही.'' या आणखी
काही असंवादी पळवाटा.
अशा कुठल्याही प्रकारच्या, अखंड उमटत राहणाऱ्या
संवाद-स्वगतांचा परिणाम सारखाच असतो. राग, संताप, अपेक्षाभंग, दडपण,
निराशा, वैफल्य, अगतिकता, कमीपणा, अपराधी भाव अशा त्रासदायक भावना तीव्र
होतात. अव्यक्त संवाद मनात साचतो, साचतो, साचतो आणि 'तुंबतो'. या
तुंबलेल्या मनात अनेक मनोशारीरिक आजारांच्या जंतूंची सुखाने पदास होते.
 
नुकत्याच प्रसिद्ध झालेल्या सर्वेक्षणानुसार दर चारातला एक माणूस
निराशाग्रस्त असतो. ही खरोखरच धोक्याची घंटा आहे. टोकाचं मानसिक असंतुलन
असणारे, उपचारांची उघड गरज असलेले मनोरुग्ण या तुलनेत खूप कमी आहेत, असं
म्हणायला हवं. कधी कधी परिस्थितीमुळे उदा. एखाद्याचं कायमचं आजारपण,
नकारात्मक विचारातल्या व्यक्तीची अटळ सोबत, व्यसनी जोडीदार, आíथक अडचणी
यातून येणारी विषण्णतेची सवय फार घट्ट रुजून जाते. तशीच ठरावीक कारणांमुळे,
ठरावीक विचारांच्या अतिरेकामुळे, धार्मिक सामाजिक बंधने, नतिकतेच्या
कल्पना यांच्या भीतीच्या पगडय़ामुळे किवा स्वत:कडून, इतरांकडून अवास्तव
अपेक्षांमुळे विशिष्ट परिस्थितीमध्ये मन:स्वास्थ्य गमावून बसणाऱ्या
व्यक्तींची संख्या प्रचंड आहे. तणावग्रस्तता, नराश्य, पुन:पुन्हा त्याच
विचारचक्रात फिरणे, निद्रानाश, व्यसनाधीनता, स्किझोफ्रेनिया अशा अनेक
मनोशारीरिक अस्वास्थ्याची मुळं या साचलेपणात असतात.  
 याचसाठी आपल्या
विचारांचा नेहमीचा अॅप्रोच बदलायला हवा. दूषित विचारांना 'वेळेवर' ओळखायला
हवं. तुंबलेलं मन मोकळं करण्याची आणि पुन्हा तुंबू न देण्याची सवय लावणं
यासाठी काही तंत्र आहेत, त्यांची माहिती प्रत्येकाला हवी. शरीरावरचे
विशिष्ट िबदू दाबून शरीर निरोगी ठेवण्याचं काम अॅक्युप्रेशरचं तंत्र जसं
करतं, तशीच मनाची दुखरी नस ओळखून चोळून, चेपून दुखणं आटोक्यात ठेवता येऊ
शकतं. बाह्य़ परिस्थितीतून सुटका अवघड असली तरी मनातल्या विचारांतून सुटका
करून घेता आली तरी ताण सुसह्य़ होऊ शकतो.
   मन मोकळं करण्याचं आणि
ठेवण्याचं प्रतिबंधात्मक तंत्र ही एक दिशा आहे. ती जाणीवपूर्वक निवडता
येते. काहींना कुठून तरी दिशा मिळते आणि एकलव्यासारखे ते शिकतात. काहींना
एखाद्या प्रसंगातून अचानक अंतज्र्ञान होतं आणि ते नव्यानं विचार करतात.
काहींना दुसऱ्याचा अनुभव बदलवतो. काहींना स्वत:च्या समस्या कळतात, पण उपाय
सुचत नाही. काहींना एका क्षणी जाणवतं की ही विचारांची वावटळ आपल्याला आता
झेपत नाहीये. काहीतरी गडबड होतेय. छोटय़ा प्रसंगातूनही हे गांभीर्य जाणवणं
बदलासाठी आवश्यक असतं. मग त्यातून लवकरात लवकर बाहेर पडणं ही 'माझी गरज'
बनते, आपल्याला समजू शकणाऱ्या, जवळच्या व्यक्तींची मदत अशा वेळी न लाजता
घेतली पाहिजे. तरीही बाहेर नाही पडता आलं तर काऊन्सिलिंग वा समुपदेशनासारखी
व्यावसायिक मदत उपलब्ध असते. लवकर घेतलेल्या मदतीचा उपयोग जास्त होतो. पण
अशा वेळी अनेकजणं  '..मला वाटतं,' मध्ये येतात. उदा. 'मला वाटतं, ..मला
काऊन्सििलगची गरज नाही. परक्यापाशी मोकळं होण्यापेक्षा माझं मी बघेन.'
'..मला काही झालेलं नाही. मी अंगावरचे कपडे फाडतोय का?'
'..समुपदेशक कशाला? लगेच औषधं चालू व्हायची.'
खरं
तर वेळेवर मदत घेतली तर अनेकांना औषधांची गरज पडतही नाही. संवादातून मोकळं
होणं देखील पुरतं. मनाच्या उलाढालींकडे संवेदनशीलतेनं पण व्यावसायिक
त्रयस्थपणे, पूर्वग्रहाशिवाय बघणं हे समुपदेशकचं काम असतं. तो न्यायाधीश
नसतो किंवा गुप्तहेरदेखील नसतो. तुमच्या दु:खाच्या मुळापर्यंत पोहोचू
शकणारा आणि नवीन दृष्टिकोन देऊ शकणारा मित्र अशी त्याची भूमिका असते. 'मला
वाटतं.' मध्ये न अडकता तो सोबतीचा हातही गरजेला धरला पाहिजे.
समुपदेशक,
मित्र किंवा कुणाहीमुळे नेहमीचा चष्मा किंवा 'मला बरोबर म्हणा' हे इगोवालं
पाश्र्वसंगीत बदलल्यावर इतर भूमिका/ शक्यता दिसायला लागतात. आपल्या
अपेक्षा आणि समजुतीकडे त्रयस्थपणे पाहाणं जमतं. त्यातून संवादाची जुनी
बोचरी पद्धत बदलते, सहजपणा येतो. त्या दुखऱ्या, रडक्या बाळाला कडेवरून खाली
ठेवायची हळूहळू सवय होते. समस्या कमी होतात, लवकर संपतात.
  'मला
वाटलं'च्या गोंधळातून बाहेर पडण्यासाठी काही तंत्र आहेत. समस्या कुठलीही
असली तरी काही मूलभूत प्रश्न स्वत:ला किंवा विरुद्ध पक्षाला विचारणं
आपल्याला दिशा दाखवू शकतं.
'माझ्या परिस्थितीत माझा एखादा मित्र/ मत्रीण असते तर मी काय सल्ला दिला असता?' हा प्रश्न स्वत:कडे तटस्थपणे पाहायला मदत करतो.
'असं
कसं वागू शकतं कोणी?'ऐवजी 'कशामुळे 'असं' वागावंसं वाटतं तुला?' हा प्रश्न
ज्याच्या विरोधात मत आहे त्या व्यक्तीला मनात/ प्रत्यक्षात विचारला तर
दुसऱ्याच्या भूमिकेत शिरणं जमतं.
'कोण चूक? कोण बरोबर?' या बालिश वादविवादाऐवजी 'या परिस्थितीत काय योग्य आहे?' हा प्रश्न दिशा दाखवू शकतो. 
'मला
नेमकं काय हवं आहे? मनस्ताप की मोकळं होणं?' हा प्रश्न आपल्याला अडवणाऱ्या
इगोचं प्रस्थ कमी करू शकतो.     'परिस्थितीबद्दल तक्रार करीत राहण्यानं
जगणं सोपं  जाईल की, तिच्या समंजस स्वीकारामुळे ताण कमी होईल?' हा प्रश्न
मनातला झगडा थांबवतो. 'तो खोटाच आहे' (तो असाच आहे) किंवा 'मला निर्णय
घेताच येत नाही' (मी असाच आहे) अशी गृहीतक घट्ट धरण्याऐवजी 'तो किती वेळा
गंभीर खोटं बोलला?' किंवा 'मी काही वेळा तरी निर्णय घेतले असतील?' असा
पूर्वानुभव तपासल्यामुळे त्या गृहीतकामधल्या 'च'ची तीव्रता कमी होऊ शकते.
 'माझंच
बरोबर आहे' हे समोरच्या व्यक्तींनी मान्य करून माझ्या म्हणण्याप्रमाणे
वागलं नाही तर माझ्या आयुष्यातला आनंदच संपला' या भावनेत आपण आणखी किती
दिवस, महिने, र्वष घालवणार, असा प्रश्न त्यातून बाहेर पडायला मदत करतो.
 'मी
भूतकाळातल्या समर्थनांत किती र्वष अडकणार आहे?' या प्रश्नातून संवादाची
पद्धत बदलण्यासाठी पर्याय सापडतो. 'होऊन होऊन काय होईल?' आणि 'बरं मग? पुढे
काय?' हे असे दोनच प्रश्न विचारायचे आणि शक्यता तपासून पुढे जायचे.
आणखी
एक प्रयोग करून पाहता येईल. तुमच्या मनात एखादी पुरातन, भूतकाळातली चिघळती
जखम किंवा एखाद्याबद्दलची दीर्घकालीन अढी असेल. मनापासून ती काढून टाकायची
आहे पण जमत नसेल तर एक अत्यंत अवघड पण अतिशय परिणामकारक तंत्र आहे. पण
त्या आधी एक गोष्ट तपासून पाहणे गरजेचे आहे. तुम्हाला त्या समस्येचा नक्की
खूप त्रास होतोय का? त्यातून एका क्षणात मोकळं होता आलं तर किती बरं होईल
हे तुम्हाला पक्कं माहीत आहे? अगदी नक्की? मग डोळे मिटा, शांतपणे मन एकाग्र
करा आणि सगळी शक्ती एकवटून मनाला निग्रहानं सांगा. 'मित्रा, जस्ट लीव्ह
इट!!' 


article On the Occasion of the World Mental Health Day | Loksatta

Published: Saturday, October 18, 2014